जब रात की चादर ओढ़े, सूरज सोने को जाता है,
और अंधेरे के डर से, आसमां भी घबराता है।
अमावस की रात को जब दुनिया सहम सी जाती है,
उस रात, शायद, चांद को भी हिचकी आ ही जाती है।
बारिश के मौसम में, जब फूल और पत्ते लहराते हैं,
पंछी आकाश में जा जा के, मीठी सी कोई धुन गाते हैं।
गर्मी और पतझड़ आते ही, शायद जड़ें भी चिल्लाती हैं,
तब बहार को पेड़ की याद से हिचकी आ ही जाती है।
एक पानी की फुहार से, नदियां कल कल कर बह निकली,
मीलों का सफ़र तय करके, सागर से वह जा मिली।
उस मिलन से नदियों की पहचान खो ही जाती है,
उस रास्ते को, लहर की लंबी दास्तां में, हिचकी आ ही जाती है।
तुम्हें भी तो आती होगी,
आखिर वह चांद, वह बहार, वह रास्ता तुम ही तो हो।
या यह सब कहानियां हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चली आती है?
सच कहना, जब मैं याद करता हूं, क्या तुम्हे भी हिचकी आ ही जाती है?